श्रीहित राधिकाचरणदास जी 'ढोंगी बाबा' की वाणी (Sri Hita Radhika Charan Das Ji)
वृन्दावनीय रस भक्ति में 'हित' ही परमोपास्य तत्व है। इस परम तत्व का आश्रय ग्रहण करते हुए अनेक रसिक साधक आज भी अपने जीवन को धन्य बना रहे हैं। ऐसे ही रसिक साधकों में स्वनाम धन्य श्रीहित राधिकाचरणदासजी के पावन नाम का परिगणन किया जा सकता है। इनका जन्म पूर्वी प्रान्त के मुकुन्दपुर नामक ग्राम (आधुनिक मध्य प्रदेश का सतना जिला) में वैशाख कृष्णा नवमी वि.सं. १६४० में हुआ था। वृन्दावन धाम में श्रीहित हरिवंश महाप्रभु के वंशज विलास वंशीय गो. श्रीहित रूपलालजी महाराज ने इन्हें हितोपासना की मंत्र-दीक्षा प्रदान की थी और रसिक साधना में इन्हें राधिकाचरणदास नाम से अभिसंज्ञात भी किया था। पूर्व में इनका नाम शिवप्रसाद था। इनके पिता सेठ श्रीत्रिवेणीप्रसादजी अपने ग्राम के एक धनी-मानी एवं धार्मिक व्यक्ति थे। श्रीवृन्दावन धाम की ललक इन्हें मात्र अठारह वर्षीय अवस्था वि.सं. १६५८ में ही लग गई थी। तत्कालीन पूज्य बाबा श्रीराधावल्लभशरणजी से इन्हें विरक्त वेष भी प्राप्त हो गया। करुवा-गुदरी से युक्त होकर इन्होंने यमुनापार मानसरोवर के निर्जन प्रदेश को अपनी साधना हेतु चयन किया। इसके अतिरिक्त इनकी भजन-भावना स्थलियाँ-बाद ग्राम, पिपरौली ग्राम, राधाकुण्ड, मोरकुटी वरसाना, वृन्दावनस्थ कोइलिया घाट, हित घाट, कालीदह घाट, अन्धेर घाट, मदनटेर, सेवाकुंज आदि अनेक स्थलों में रही हैं। अपने भोजनाच्छादन के लिए इन्होंने ब्रज में प्रसिद्ध मधुकरी वृत्ति को अपनाकर अहर्निशि भजन किया।